I am a great fan of Om Prakash Aditya. He was a great hindi poet and satirist. A master of laughter in the pre-cable days, he commanded great admiration at DD on the regularly broadcast "Hasya Kavi Sammelan".
Remembering him I got to know that he passed away some six months ago in an accident! May God rest his soul in peace.
Some lines from a poem of his...it is the lamentation of a student about the vast course syllabus.
नास हो इतिहास का, सन के समंदर बह गए,
मर गए वो लोग, रोने के लिए हम रह गए,
बाबर, हुमायूँ, शाहजहाँ, और अकबर आप था,
कौन न जाने किसका बेटा, कौन किसका बाप था!
ज़िन्दगी भर लिख न पाया मैं चेकोस्लोवाकिया
नास हो इतिहास का, सन के समंदर बह गए,
मर गए वो लोग, रोने के लिए हम रह गए,
बाबर, हुमायूँ, शाहजहाँ, और अकबर आप था,
कौन न जाने किसका बेटा, कौन किसका बाप था!
ज़िन्दगी भर लिख न पाया मैं चेकोस्लोवाकिया
अंक के अतिरिक्त मुझको और कुछ भाता नहीं,
क्या करूँ लेकिन गुणा करना मुझे आता नहीं,
अकल अल-जब्रा हमारी जाएगी जड़ से पचा,
तीन मैं से छह गए और क्या बाकी बचा?
भुगूल में गत वर्ष आया गोल है कैसे धरा,
और मैंने एक पल मैं लिख दिया उत्तर खरा,
गोल है पूरी कचोरी, और पापड़ गोल है,
गोल है लड्डू, जलेबी, रसगुल्ला भी गोल है,
गोलगप्पा गोल है मुंह भी हमारा गोल है
इस लिए हे मास्टरजी यह धरा भी गोल है.