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Thursday, January 20, 2011

From a student - Aditya Goel  - The juvenility in a child's thoughts, the full play in his actions, the range of his imagination, compel me to wish if each person could be as innocent, and not let facts get in his way. As puerile as it could get, your imagination will keep you calm in tribulations; and who knows, one of those unconventional dreams might come true.



ख्वाबों के किस्से,
अगर सुबह से होते,
अपने मन की करते,
और मीठे सपने पिरोते.

अपने नामों को लिखना,
गीली मिटटी में होता,
हर रोज़ का गुस्सा,
बस किताबों से होता.

डर वोह मन का,
सिर्फ माँ से ही होता,
हर झूठ, हर रोना,
एक खिलोने में खोता.

रियासत के किस्से,
झूठी कहानियों में होते,
और उनके हिस्से,
हम सोते ही होते.

कभी परेशानियों में,
वोह मुस्कुराना सच्चा होता,
क्या दुनिया वोह होती,
जहां हर कोई बच्चा होता.

- आदित्य गोयल

Thursday, May 06, 2010

Aaram Karo

This is a famous poem, that I read as a child...saw its link on Facebook today and was instantly transported to my childhood. Enjoy!




आराम करो
एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।
क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।

आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।

यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ -- है मज़ा मूर्ख कहलाने में।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।

मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।
मेरी गीता में लिखा हुआ -- सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।

अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।

मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।
- गोपालप्रसाद व्यास

Sunday, November 08, 2009

Om Prakash Aditya

I am a great fan of Om Prakash Aditya. He was a great hindi poet and satirist. A master of laughter in the pre-cable days, he commanded great admiration at DD on the regularly broadcast "Hasya Kavi Sammelan".

Remembering him I got to know that he passed away some six months ago in an accident! May God rest his soul in peace.

Some lines from a poem of his...it is the lamentation of a student about the vast course syllabus.

नास हो इतिहास का, सन के समंदर बह गए,
मर गए वो लोग, रोने के लिए हम रह गए,
बाबर, हुमायूँ, शाहजहाँ, और अकबर आप था,
कौन न जाने किसका बेटा, कौन किसका बाप था!

ज़िन्दगी भर लिख न पाया मैं चेकोस्लोवाकिया

अंक के  अतिरिक्त  मुझको  और  कुछ  भाता  नहीं,
क्या  करूँ लेकिन  गुणा करना  मुझे  आता  नहीं,
अकल अल-जब्रा  हमारी  जाएगी  जड़  से  पचा,
तीन  मैं  से  छह गए  और  क्या  बाकी  बचा?

भुगूल  में  गत  वर्ष  आया  गोल  है  कैसे  धरा,
और  मैंने  एक  पल  मैं  लिख  दिया  उत्तर  खरा,
गोल  है  पूरी  कचोरी, और पापड़  गोल  है, 
गोल  है  लड्डू, जलेबी, रसगुल्ला भी  गोल  है,
गोलगप्पा  गोल  है  मुंह  भी  हमारा  गोल  है  
इस  लिए  हे मास्टरजी  यह  धरा  भी  गोल  है.